मेरा मुंबई प्रवास

मुंबई के बारे में पहले तो इतना जान लो भाई कि रहने के लिए पैसे बहुत चाहिए। आपको जरा भी अपनी अमीरी पर नाज़ हो, कभी भी ज़िंदगी में लगे कि हाँ थोड़े पैसे जुड़ गए हैं, तुरंत मुंबई होकर आएं। वापिस आकर आप पार्ले-जी से ऊपर का बिस्किट नहीं लाएंगे घर में। मुंबई में हजारों-हजार रुपए किराया देकर आप एक चूहेदान में रहेंगे। हिन्दी-मराठी का इतना भी झगड़ा नहीं है जितना न्यूज वाले दिखाते हैं। हाँ राजनीति से दूर रहो, ठाकरे, शिवसेना को गाली ना दो, शिवाजी के नाम से पहले छत्रपती लगाना मत भूलो और भीड़ के धक्के खाते रहो। ज़िंदगी के पहिये घूमते रहेंगे।
मुंबई में पहुँच कर आपको पता चलेगा कि मज़ाक-मज़ाक में हमारे बाप दादा ने कितने बच्चे पैदा कर लिए। शहर के बीच में मीठी नदी नाम का एक खूबसूरत नाला है, जिसमे दुनिया के सारे प्रोटीन विटामिन मौजूद हैं। मेरा एक मराठी दोस्त कहता है कि एक समय इसका पानी दूध जैसा सफेद था, फिर यूपी-बिहार के भैया लोग आए और उन्होंने इसमें कचरा और पॉलिथीन डाल कर गंदा कर दिया। उस दिन के बाद से भाई ने जब भी मुझे सुबह फोन किया और पूछा कि क्या कर रहे हो? मेरा बस यही जवाब था, कि मीठी नदी में कचरा डालने जा रहा हूँ।
मुंबई की लोकल ट्रेन दबे-छुपे समलैंगिकों के लिए ईश्वर का वरदान हैं। इतनी भीड़ कि कई बार आप दरवाजे तक पहुँचने में नाकाम होने के बाद एक दो स्टेशन बाद उतर कर दूसरी ट्रेन पकड़ कर वापिस घर आते हैं। लोग कंगारू की तरह अपने बैग को कमर के बजाए पेट पर लटका कर चलते हैं। आगे लटका बैग, एक हाथ में वडा पाव, दूसरे हाथ में छतरी और विडिओ गेम से तेज रफ्तार। वहाँ सड़क पर चलते हुए दुकानों के नाम पढ़ना सख्त मना है। यह कुक्रत्य भीड़ की रफ्तार कम कर देता है। मैं समझता था कि ट्रेन और टैक्सी के घूमते पहिये और तनाव ग्रस्त लोगों के जल्दबाज कदम इस शहर का दिल है। जिस दिन यह सब थम जाएगा उस दिन यह शहर मर जाएगा। पर कोरोना ने वह समय भी दिखाया जब सब कुछ रुक गया और इस शहर ने साँसे थाम कर और मुहँ पर कपड़ा बांध कर दिन गुजारे।
वहाँ लोगों में सिविक सेन्स बहुत अच्छी है। अगर आप गलती से किसी से टकरा जाएं तो काफी चांस है कि सामने वाला ही माफी मांग ले, कि अगर मैं पैदा ही नहीं हुआ होता तो शायद आप मुझ से टकराते नहीं। महिलाओं के लिए यह स्वर्ग है। आप पूरा दिन शहर में घूमें और आप के शरीर पर केवल उसी मर्द के हाथ पड़ेंगे जिसको आप इजाजत देंगी। मुंबई में लोग पाव और ब्रेड के दीवाने हैं। टिक्की, समोसा, चाट हर चीज़ में पाव घुसा देते हैं। वैसे चाट टिक्की नॉर्थ इंडिया में ही अच्छी मिलती है। मुंबई जाएं तो सैंडविच, पाव भाजी, कुल्फी फ़लूदा वडा पाव, और लोकल मराठी डिश जरूर ट्राइ करें। वहाँ बांद्रा बैन्ड्स्टैन्ड पर आपको युवक युवती एक दूसरे को सरेआम चूमते दिख जाएंगे। घर इतने छोटे हैं, सड़कों पर इतनी भीड़ है, होटल इतने महंगे है कि एक दूसरे को छूने, चूमने और चाटने की कोई और जगह नहीं बची। इस मजबूरी को इस शहर ने समझा और स्वीकार किया है।
मुंबई की जोरदार बारिश भी यहाँ कुछ नहीं रोक पाती। सीवर का मसालेदार गर्म पानी जब घुटने छूता है तो शायद कुछ लोगों को गठिया के दर्द में आराम पहुंचता होगा। वहाँ महिलाओं की घर और बाहर की एक ही ड्रेस है। जिस रंग बिरंगी मैक्सी में वह आलू छील रही होती हैं, उसी में बाहर जा कर नारियल पानी भी खरीद लाती हैं। मुंबई में दिन भर इडली और दोसा का ताज़ा बैटर मिलता है, जो कि सुबह नाश्ते का काफी टाइम बचाता है।
ऐसी बहुत सी लड़कियों को मैं जानता हूँ जो सालों से दस-बारह हजार की नौकरी के लिए दिन में ट्रेन से 2-2.5 घंटे का सफर करती हैं। बहुत गरीबी और मजबूरी है। पर गरीबी और मुश्किलों में भी कुछ लोग कम्फर्ट ज़ोन में हैं। वह दिन भर बारह घंटे की नौकरी कर लेंगे, ट्रेन के धक्के खा लेंगे, पर कोई दूसरी नौकरी, कोई दूसरा कोर्स करके अपनी ज़िंदगी को बदलने की कोशिश नहीं करेंगे। शायद ज़िंदगी इस से कुछ अलग भी हो सकती है, समाज उन्हें यह विश्वास दिलाने में असफल रहा। अभी किसी पत्रिका के सर्वे में मुंबई को दुनिया का सबसे तनाव ग्रस्त शहर घोषित किया गया है।
मुंबई में घूमने और देखने को बहुत कुछ है। गेटवे ऑफ इंडिया से ले कर सिद्धिविनायक मंदिर तक। वहाँ भगवान गणेश को लोग बहुत मानते हैं। गणेश चतुर्थी पर सड़क पर लेट-लेट कर नाचते हैं। मुझे प्रथ्वी थियेटर और किताबखाना बहुत पसंद थे। प्रथ्वी थियेटर में मैंने नसीरुद्दीन साहब से लेकर Kalki Koechlin तक सबके नाटक देखे। कल्कि कितनी शानदार कलाकार है, यह आपको थियेटर में ही पता चलेगा। कब वह एक तितली सी उड़ती मंच के इस कोने से उस कोने तक पहुँच गई, आपको पता ही नहीं चलेगा। पंकज कपूर साहब की आवाज़ में कितना दम है, यह उनका नाटक देख कर ही महसूस होगा। शबाना आजमी मैडम कैसे पचास पेज के डायलॉग याद कर लेती हैं, मुझे आज भी आश्चर्य होता है।
किताबखाना वहाँ की एक किताब की दुकान है। वहाँ आपको 10-20 पर्सेन्ट का डिस्काउंट भी मिलता है, पर आप वहाँ इसलिए नहीं जाते। वहाँ पर आपको लगभग हर नई-पुरानी किताब मिल जाएगी, पर यह भी आपके वहाँ जाने का कारण नहीं होता। आप वहाँ जाते हैं, वहाँ के स्टाफ के लिए। वह लोग वाकई किताबों से प्यार करते हैं। आप किसी भी स्टाफ के पास जाकर बोलिए कि मुझे वह किताब लेनी है, जिसका मुझे नाम याद नहीं आ रहा, पर उसका कवर लाल रंग का है और उसकी राइटर को कैंसर था और उसने विश्व युद्ध पर लिखा था। भाई साहब, वह आदमी आपको वह किताब ढूंढ कर दे देगा। बहुत प्यारे लोग हैं। अभी कुछ महीने पहले उस दुकान में आग लग गई थी, मुझसे शाम को खाना नहीं खाया गया।
मैंने मुंबई में चार साल बिताए। मिश्रित अनुभव रहा। जिंदादिल शहर है। प्रदूषण सोखने को लहराता हुआ समुद्र है। मैंने मुंबई के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखी थी, उन्हें यहाँ फिर से लिख रहा हूँ।
सुबह अँधेरे उठते हैं और लोकल ट्रेन पकड़ते हैं
सेकंड क्लास में घुसने को जो कलाबाज़ियां करते हैं
आधी अधूरी सीट के पीछे दुनिया भर से लड़ते हैं
छोटी सी स्क्रीन पे जाने क्या क्या देखा करते हैं
झुके झुके से कन्धों पर जो लैपटॉप ले के चलते हैं
सिगरेट धुंए के छल्लों में जो बादल ढूँढा करते हैं
ढंग से कभी न जगते हैं न ढंग से कभी वो सोते हैं
जाने कितने ग़म में हैं वो जाने कितना रोते हैं…
-गौरी शंकर